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Showing posts from August, 2017

समाज के साथ बदलती वर्ण व्यवस्था

वैदिक काल से ही समाज 4 वर्णों  में विभाजित था : ब्राह्मण, राजन्य या क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र | • प्रत्येक वर्ण का अपना कार्य निर्धारित था जिसे वे पूरे रीति रिवाज के साथ करते थे | हर एक को जन्म से ही वर्ण दे दिया जाता था | • गुरुओं के 16 वर्गों मे से एक ब्राह्मण होते थे परंतु बाद में दूसरे संत दलों से भी श्रेष्ठ हो जाते थे | इन्हे सभी वर्गों में सबसे शुद्ध माना जाता था और ये लोग अपने तथा दूसरों के लिए बलिदान जैसी क्रियाएँ  करते थे | • क्षत्रिय शासकों और राजाओं के वर्ग में आते थे और उनका कार्य लोगों की रक्षा करना और साथ ही साथ समाज में कानून व्यवस्था बनाए रखना होता था | • वैश्य लोग आम लोग होते थे जो व्यापार, खेतीबाड़ी और पशु पालना इत्यादि का कार्य करते थे | मुख्यतः यही लोग कर अदा करते थे | • यद्यपि सभी तीनों वर्णों को उच्च स्थान मिला था और ये सभी पवित्र धागे को धारण कर सकते थे, पर शूद्रों को ये सभी सुविधाएं उपलब्ध नहीं थीं और इनसे भेदभाव किया जाता था | • पैतृक धन पित्रसत्तात्मक का नियम था जैसे चल अचल संपत्ति पिता से बेटे को चली जाती थी | औरतों को ज़्यादातर निचला स्थान दिया जाता था |

वृद्धाश्रम की आवश्यकता क्यों??

आजकल देखा जाये तो हर दूसरे शहर में एक वृद्धाश्रम होता है। जिस तरह बाल आश्रम जरुरत मंद बच्चों को पनाह देता है वैसे ही वृद्धाश्रम घर से निकले गए असहाय वृद्ध जनों को पनाह देता है। इन बुज़ुर्गो की हालात के ज़िम्मेदार और कोई नही अपितु उनके बच्चे ही होते है जिन्हें प्यार से हर परिस्तिथि में पाला होता है वे ही माँ बाप को वृद्धाश्रम का रास्ता दिखा देते है। ये परिणाम है भारतीय समाज का पश्चिमी सभ्यता की ओर बढ़ने का।हम आधुनिकता के नाम पर अपनी संस्कृति और संस्कारो को इतना पीछे छोड़ रहे है की इन्सानियत कही न कही खोती जा रही है।माँ बाप हमे बिना किसी स्वार्थ के पालते है बड़ा कार्टर है और हमसे केवल एक ही आशा रखते है की हम बड़े होकर उनकी लाठी बनेंगे और उनको बुढ़ापे में सहारा देंगे। लेकिन आजकल कुछ लोगो की स्वार्थता तो देखिये एक बार सारी संपत्ति मिल जाने पर अपने माँ बाप को ही त्याग डेटर है उन्हें बोझ समझने लगते है और घर से बेदखल कर देते है। जिनको समाज या सम्मान का दर होता है जो लोग ऐसा नही कर पाते वे अपने माँ बाप से अलग रहने लगते है और उन्हें अकेला छोड़ देते है। आजकल फादर्स डे और मदर्स डे का बहुत चलन है। लेकिन ल

अधधविश्वास में अंधे हुए लोग

इन दिनों किसी ने बहुत खूब कहा है की "रेप होने पर मोमबत्तिया जलाते है और रेप का आरोपी पकड़ा गया तो शहर के शहर जला दिए"। लेकिन ऐसा क्यों?? कुछ दिन पहले 70 बच्चों की मौत हो गयी थी उस पर लोग चुप रहे। तब सड़को पर चिड़िया भी नही उतरी लेकिन एक इंसान रुपी भगवान , जिसे लोगो के अंधविश्वास ने भगवान बना दिया उसका आरोप साबित होने भर से 30 लाख लोग सड़को पर उतर आये। एक बलात्कारी के इन समर्थको ने 40 बेगुनाहो की हत्या कर दी। 300 करीब लोग घायल हो गए और यातायात व्यवस्था भंग कर दी। इन सभी करामातों से हरियाणा, पंजाब सहित पांच राज्य प्रभावित हुए। भारत के ये दंगाई अंधविश्वासी लोग केवल उस इंसान में भगवान ढूंढ पाये जो उन्हें अपनी वाणी से बेबकूफ बनाता रहा।जनता केवल उसे अपना लीडर या भगवान बनाती है जो अच्छा बोलता हो और माइक पर कहानिया अच्छी सुनाता हो। पहले लोग ढोंग में फस जाते है और बाद में पर्दा उठने पर सच्चाई सहन नही कर पाते है। जो लोग आज एक बलात्कारी बाबा के समर्थन में सड़को पर उतरे है,जो लोग मीडिया के सामने रो रो कर बता रहे थे की बाबा बेगुनाह है उन लोगो में से कितने ही ऐसे होंगे जो भगवान में विश्वास नही

इस 15 अगस्त युवाओ को एक बेहतर सन्देश

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हर साल 15 अगस्त की तारीख हमारे लिए यह मायने रखती है की इस दिन हमारा देश आजाद हुआ था, भारत को अंग्रेज़ो की गुलामी से आजादी मिली थी। इस स्वतंत्रता दिवस मै देश के युवाओ से एक प्रश्न करना चाहती हूँ। क्या स्वतंत्रता दिवस पर हमे वही ख़ुशी होती है जो 70 साल पहले 15 अगस्त 1947 को  सभी भारतवासियो को हुई थी। वह ख़ुशी जिसमे सभी के आँसू झलक आये थे। कुछ ऐसी ख़ुशी जो पिंजरे खुलते ही उड़ते पंछी को होती है। क्या हम उस ख़ुशी को हर साल महसूस करते है? या फिर हम इसे केवल एक राष्ट्रिय त्यौहार मानते है।शायद ही हम उस ख़ुशी को महसूस करते है क्योंकि हमने अंग्रेजो की गुलामी नही सही है, हमने उनके अत्याचारो को नही सहा है, वो हम नही थे जो अंग्रेजो के विरोध में सड़को पर उतर आते थे, वो हम नहीं थे जिन्होंने अपनी देह पर सैकड़ो कौड़े खाये थे, वो हम नही थे जिनके गहरे घावों पर नमक फेरा गया था, वो हम नही थे जिनने इतनी यातनाये सही थी, वो तीन हम नही थे जो भारत के लिए फाँसी पर लटक गए थे, वो सब हम नही थे लेकिन वो हममे से ही तो थे। वो भारत माँ के वीर सपूत थे। ये 'वीर सपूत' जैसा ऐतिहासिक सा लगने वाला शब्द अब केवल सरहद पर अपनी जान

मेरी डायरी का एक अंश

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रोज सुबह एक बिल्ली का बच्चा फ्रिज़ के बाजु में आकर बैठ जाता है। जब मै फ्रिज़ से कुछ लेने जाती हूँ तो वो मासूम चेहरा आशा भरी नज़रो से मेरी तरफ देखता है तब मैं सब से छुप कर थोडा सा दूध ज़मीन पर गिरा देती हूँ और वो उसे पी जाता है। ये लगभग रोज़ का सिलसिला बन गया था। वो बिल्ली का बच्चा रात भर एक कमरे में सोता रहता है और सुबह होते ही फ्रिज़ के पास बैठ जाता है।फिर दिन भर बहार रहता और रात में आकर फिर सो जाता। लेकिन वो कल से वापस नही आया।वो बच्चे जैसा दीखता है लेकिन अब बड़ा हो गया है।उसे मुझसे कोई खतरा नही है। एक बार मेरी बेबकूफी के कारण एक छोटू सा बच्चा मर गया था। वो अपनी माँ के साथ ऊपर के कमरे में रहता था।बहुत छोटा था। दिन में उसकी माँ उसे छोड़ कर चली जाती थी और वो कवेलू पर फुदकता रहता था।बीच बीच में उसकी माँ भी आ जाती थी।लेकिन एक दिन वो ऊपर से नीचे गिर गया उसे कुछ नही हुआ।मैंने उसे एक कमरे में बंद कर दिया और खिड़की खुली छोड़ दी।उसकी माँ ने आना बंद कर दिया वो उसे छोड़ कर चली गयी शायद उसके बच्चे को इंसानी हाथो ने छू लिया था इसी कारण। दो दिन के अंदर उस बच्चे की मौत हो गयी। मैने उससे उसकी आज़ादी छीन ली शय