ये है मेरी होली
मैं एक लड़की हूँ जो गाँव में रहती है।दायरों भरा माहौल जहाँ बड़े होते होते लड़कियों का होली खेलना बंद हो जाता है और लड़को आवारापन बढ़ जाता है। बचपन में हम लड़कियां भी बहुत होली खेलते थे अपने भाई बहनो और दोस्तों के साथ।पूरे गांव में पिचकारी लेकर दौड़ते फिरते थे। एक दुसरे को रंग में इतना भिड़ा देते थे कि समझ ही नही आता था कौन है। उस समय हम बच्चे थे हम पर लड़का लड़की वाला भेद लागू नही होता था।दोपहर 3 से 4 बजे तक घूमते घामते अपने घर लौट कर आते थे और फिर 2 घंटे तक हमारे घरवाले हमे जबरदस्ती नहलाते थे। फिर भी वो होली का रंग एक हफ्ते तक हमे जकड़े रहता था।होली के अगले दिन जब स्कूल जाते तो एक दुसरे को देख तुलना करते की किसका रंग ज्यादा गहरा है,किसने ज्यादा होली खेली है।फिर जब लंच की घण्टी बजती तो जल्दी से अपना अपना टिफिन निकल कर बैठ जाते और सबको अपनी अपनी गुजिया - पापड़ी बताते। एक दुसरे के टिफिन से खाते और अंत में मूल्यांकन करते की किसके घर की ज्यादा अछि थी।ये मेरे बचपन की होली थी जो मुझे बहुत याद आती है।होली पर न कोई काम करना होता न ही कोई पाबन्दी होती थी। खेलना कूदना और गुजिया खाना बस यही काम था। लेकिन अ