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Showing posts from June, 2018

एक स्त्री ये भी है

संघर्ष,पीड़ा और स्वाभिमान एक औरत की ज़िन्दगी के अभिन्न अंग होते है।साथ ही साथ रिश्तों के दायरे अक्सर उसको चूर चूर कर देते है।ऐसे रिश्ते जिनसे उसका वजूद हो।बिना उन रिश्तों के उसकी कोई औकात न हो। लेकिन वो चीख नही सकती,अपना दर्द अपनी वाणी से बाहर नही कर सकती।नियति ने उसे चुप रहने के लिए बनाया है,सहने के लिए बनाया है। वाह रे भगवान् क्या दुनिया बनाई है तूने।यहाँ चीत्कारें यदि पुरुष की हों तो आसमान भी उठा ले।लेकिन एक औरत की चीत्कार को जबान के बहार जाने की इज़ाज़त नही है।वो चीत्कार हमेशा कलेजे के अंदर दबी रहती है और आग की तरह धधकती रहती है।लेकिन जब संसार की जननी मुट्ठी भर पापियों से त्रस्ट होकर कुंठित होकर "मैं" को चुनती है तब वो चीत्कार बहार निकलती है और उस चीत्कार को दबाने का एक ही तरीका होता है कि उसके चरित्र पर ऊँगली उठा दो।यहाँ आकर भाई बहन, बाप बेटी,पति पत्नी जैसा रिश्ता कोई मायने नही रखता।ये रिश्ते जितने करीबी होते है उतना ही दर्द दे जाते है।फिर एक राज खुला की वो आत्महत्या क्यों करती है।वो अपना संसार बसाती है और बार बार खुद को मारती है।आखिर क्यों? वो समझ गयी क्योंकि उसंने वो महसूस

होने दो जो हो रहा है

होने दो जो हो रहा है.. मक्कारी से पुल टूटने दो..बेशर्मी से बलात्कार होने दो.. क्या फर्क पड़ता है उस सत्ता में बैठे लोगों को.. उन्हें तो चुनाव चुनाव खेलने दो और आप उनकी अंधभक्ति में लगे रहो। क्या फर्क पड़ता है पुल गिर जाये लोग मर जाएं। आपके प्रिय नेतागण तो दुःख व्यक्त कर पल्ला झाड़ लेते है और आप अंधभक्ति में तालियां बजाते रहते है। कोई फर्क नही पड़ता यदि आपके पड़ोस में बलात्कार हो जाये या आपके घर का कोई पुल के नीचे दब जाये.. आप भक्ति में इतने अंधे हो गए है कि आपमे न संवेदना बची है और न ही इंसानियत। सच कहा है किसी ने कि जनता बेवकूफ होती है, वे हमे  जाति के नाम पर लड़वाएंगे तो हम लड़ेंगे, हमें धर्म के नाम पर लड़वाएंगे हम लड़ेंगे। क्या फर्क पड़ता है लोग मर रहे है, मरने दो। हमें फुरसत कहाँ है हमें फ़िल्म पर लड़ना है,तस्वीर पर पड़ना है, बहुत बड़ी बड़ी लड़ाइयां लड़नी है।क्योकि हम है भारत के वीर सपूत जो जिन्ना की तस्वीर नही रहने देगें,पद्मावती की कमर नही दिखने देंगे। लेकिन पुल गिरेगा लोग मरेंगे हम मरने देंगे.. बलात्कार होगा.. हम होने देंगे। कुछ लोग घायलों को खून देने की होड़ में लगे है। सोशल मिडिया पर अपनी तारीफ

देश के लिए कुछ करोगे??

ये 'वीर सपूत' जैसा ऐतिहासिक सा लगने वाला शब्द अब केवल सरहद पर अपनी जान देने वाले भारतीय जवानो के लिए उपयोग किया जा सकता है। क्योंकि वे ही वीर सपूत कहलाने लायक बचे है और हम भारत के युवा, जिनमे न भगत सिंह जैसी देश भक्ति है, न आजाद जैसी वीरता और न ही सुभाषचंद्र जैसा जोश। हमने देश की रक्षा और व्यवस्था का ठेका सरकार को दे रखा है। जब सरकार अपना काम ठीक से नही करती है तो हम सरकार को बुरा भला कहकर अपना कर्तव्य पूरा कर लेते है। लेकिन हम जाति के नाम पर क्यों लड़ रहे है। जो बचपन में साथ खेला करते थे आज एक दूसरे के खिलाफ सड़को पर उतर रहे है,आपस में पथराव कर रहे है और एक दुसरे की हत्या कर रहे है और लड़ने के कारण भी बहुत बड़े बड़े होते है- जिन्ना की तस्वीर और पद्मावती की कमर। जाति के नाम पर तो रोजाना लड़ते है,कहीं भी कभी भी।हम भारत का वर्तमान भी है और भविष्य भी, लेकिन भारत के अतीत से सीखने की बजाये हम पूर्वजो के शोषण पर लड़ रहे है। ये सब मत कीजिये... कुछ करना है तो इस देश के लिए कीजिये। युवा वर्ग का अक्सर एक सवाल होता है की हम तो अभी अपने पैरो पर खड़े भी नही हुए है हम भला देश के लिए क्या कर सकते है