साँझी की समीक्षा

आशुतोष तिवारी जी द्वारा -
साँझी - एक अधूरी कहानी : एक संक्षिप्त अनुभव

                    "प्रेम हमारे समाज में 'पाकड़' का वह वृक्ष है जिससे छाया की अपेक्षा तो सब करते हैं लेकिन कोई उसे अपने आंगन में लगाना पसन्द नहीं करता। प्रेम के किस्से सुनना सबको पसन्द है और उस कहानी के प्रेमी जोड़ों से सहानुभूति भी होती है लेकिन यदि एक प्रेम कहानी हमारा प्रश्रय माँगने लगे तो सबसे बड़ा निंदक भी यह समाज ही होता है। प्रेम को आदर्श बताकर उसका पाठ पढ़ाने वाले समाज को प्रेम के यथार्थ के धरातल पर प्रसन्न हो जाने वाला प्रेमीजोड़ा अपना सबसे बड़ा शत्रु और विद्रोही लगने लगता है। समाज की इसी प्रवंचक विचारधारा को परत-दर-परत खोलती प्रतीत होती है 'साँझी एक अधूरी कहानी' ।
                    यह 'लम्बी कहानी', हाँ लम्बी कहानी ही क्योकि यह उपन्यास के धरातल पर तो खरी उतरती नहीं दिखाई पड़ती है, पूरी तरह से उस स्त्री के अपने जीवन के प्रति अविश्वास और संदेश की भावना से ओतप्रोत है जो रूढ़िवादी और तथाकथित छद्म परम्पराओं के खूंटे से बंधी हुई समाज व्यवस्था और परिवार के भीतर स्वयं की स्थिति को नगण्य मानती है। वह अपने आप को दूसरों के सोच के अनुसार ही हेय मानने लगती है और अपने खिलाफ हो रहे अत्याचारों को प्रारब्ध मानकर उसका विरोध तक नही करती।
                  यह कहानी समाज के वर्षों से चली आ रही उन रूढिगत् व्यवस्थाओं को भी उजागर करती है जिसके भीतर स्त्री की स्थिति न ही सिर्फ एक वस्तु की तरह है बल्कि उससे भी बदतर है। साथ में इस कहानी में जातीय संरचना जो वैवाहिक संबंधों के सामाजिक नियमों में प्रमुख माने जाते हैं, को भी निर्दिष्ट किया गया है जो कुछ तथाकथित प्रबुद्ध जनों द्वारा नागरी और ग्रामीण जीवन के बीच एक विभाजक रेखा भी खींचते हैं जो किसी भी दृष्टि में लक्ष्मण रेखा से कम नहीं ।
                    कहानी की नायिका का बार बार अपने जीवन से मोहभंग उसकी अस्थिरता को जाहिर करता है । और यह उसकी अस्थिरता नहीं है बल्कि यह समाज में एक स्त्री की अस्थिरता है जो पुरुष वादी विचारधारा के अनुसार पुरुषों के द्वारा बनाए गए तमाम बंधनों और अत्याचारों जिन्हें मर्यादा की शक्ल में पर्दे के रूप में लागू किया गया है, का परिणाम है। दूसरी बात यहाँ स्त्री के ही कई रूप दिखाई देते हैं । कहीं प्रेम करने वाली और त्रस्त साँझी दिखाई पड़ती है तो दूसरी तरफ अपने लालसाओं को साधने के लिए निम्न स्तर तक गिरी हुई 'रागिनी' भी दिखाई देती है । अगर आधुनिकता से संपृक्त साँझी की माँ दिखती है तो परम्पराओं का हवाला देकर निर्ममता के हद तक गिरी हुई साँझी की सास और ननद 'रावी' भी दिखाई देती है । सास और ननद के द्वारा साँझी को पटरी पर लाने का ससुर को दिया गया आश्वासन तो उनकी रूढ़िवादी और मालिकों के सामने स्वयं को अव्वल सिद्ध करने की ही मानसिकता को दर्शाता है जैसे नौकरों के समूह में कोई नौकर अपने स्वामी के सामने स्वयं को विश्वासपात्र सिद्ध करने के लिए दूसरों को नीचा दिखाने में अपना बड़कप्पन महसूस करता है । 
                    हालांकि साँझी के जीवन में प्रकाश की एक ज्योति है जिसने उसके जीवन को उजालों से भर दिया है और वह है उसके प्रेमी का पति होकर भी प्रेमी ही रहना । ज्यादातर सम्बन्धों में प्रेम विवाहोपरांत जिम्मेदारी में बदल जाता है और उनके बीच का स्नेह कम हो जाता है लेकिन 'वंश' साँझी के जीवन का वह अमृत है जिसको पाकर वह तानों के जहर बुझे वाणों से भी घायल तो होती है लेकिन मरती नहीं । 
                    शिल्प के स्तर पर देखा जाए तो रचना सपाटबयानी है। हालांकि लेखिका के इस विधा में नई होने के कारण संवेदनशील स्थानों की पहचान करने में सफल नहीं हो पाई हैं इसलिए सुख और दुख के चर्मोत्कर्ष की अवस्थाएं भी अनायास ही गुजर जातीं हैं और मानस वहां ठहरकर पूर्ण रसानंद की अनुभूति नहीं कर पाता ।
                   कुल मिलाकर निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि भावभूमि के स्तर पर यह कृति स्त्री अस्मिता की चिंता करने के लिए एक बौद्धिक वर्ग में चेतना पैदा करती है। यह कहानी आधुनिकता के कुत्सित रूप और परम्परा के संकीर्ण मानसिकता के बीच पिसती हुए एक नारी की मुकम्मल दास्तान है जहाँ वह किसी घर की नही रह जाती बल्कि खानाबदोश सी लगने लगती है । 

- आशुतोष तिवारी 'आशू'
- परास्नातक (अध्ययनरत) दीदउ गोरखपुर विश्वविद्यालय
- दिनांक - १७/०९/२०२०

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