ऐसी कैसी ज़िन्दगी

जब मैं छोटी सी थी।
पेड़ पर चढ़ने को मचलती थी।पिता डाँटते
ये लड़को जैसी गलत मस्तियाँ है।
माँ समझती। शाम को रसोई घर में ले जाती।
और खाना पकाना सिखाती।
कहती कोशिश करो।अगर तुम्हारी इच्छा हो।।

जब में कुछ बड़ी हुई।
दादी को तो कम एक ही था।
काम सीख लो।काम सीख लो।काम सीख लो।
मै सोचती क्या बड़े होके नोकरानी बनना है।
पर मै नादान थी।
दादू न जाने क्या क्या खिलाते।
मेरे खेलने खाने के दिन होने का विश्वास दिलाते।

फिर एक नाज़ुक समय आया।
हर बात में रोक टोक।हर साथ पर संदेह।
जीवन लगने लगा बोझ।अपने लगने लगे फ़ांस।
कहा गये खेलने खाने के दिन।
माँ का लाड़ लगने लगा लताड़।
भाई की शरारत।देने लगी हरारत।
मेरी इच्छा क्यों नही चलती??

एक दिन मैंने सुना।
की मेरी पढ़ाई पूरी हो गयी।
लेकिन क्या मैं कॉलेज नही जाऊँगी।
भाई भी तो जाता है।क्या में नही जाऊँगी।
क्या में कुछ नही बन पाऊँगी।।
पापा ने तो फैसला सुना दिया।
पर मेरी इच्छा का क्या??

आज में परदे की ओट में छुपकर।
देख रही हु उन अंजान लोगो को।
जो मुझे अपने घर से पराया करने आये है।
मैं देखती हूं माँ की तरफ।
जो ख़ुशी से यहाँ वहां दौड़ के काम कर रही है।
माँ खुश।पिता भी खुश।भाई तो बहुत खुश।
लेकिन मेरी ख़ुशी का क्या??

मेरी पढ़ाई को लात मारकर।
बांध रहे यूं शादी के बंधन में।
अब कैसी होगी ज़िन्दगानी??
लो बन गयी माँ की परी।
बिना पगार की नोकरानी।।
मेरी इच्छा का क्या??
मेरी खुशियों का क्या??

                                   -शिवांगी पुरोहित।

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