जाति आरक्षण की आड़ में नासमझों की बढ़ती फौज

भारत सरकार द्वारा 67 साल पहले निम्न जाति के साथ हो रहे कथित भेदभाव को लेकर जाति आरक्षण व्यवस्था लागु की गयी। उस समय सरकार का ध्यान सिर्फ इस ओर था की निम्न वर्ग के साथ उनकी जाति को लेकर शिक्षा और नोकरी के क्षेत्र में भेदभाव किया जा रहा है। लेकिन आज परिस्थिति कुछ ऐसी हो गयी है की आरक्षण की आड़ में अयोग्यो का शासन बढ़ता जा रहा है।यदि बात केवल शिक्षा के क्षेत्र की करें तो लाखो विद्यार्थी ऐसे होते है जो सामान्य वर्ग से उच्चतम अंक प्राप्त करते है लेकिन कम अंक वाले आरक्षण प्राप्त विद्यार्थी से पीछे रह जाते है।यदि सरकार जाति के हिसाब से आरक्षण न देकर आर्थिक स्थिति के हिसाब से आरक्षण दे तो भारत में पढ़े लिखे बेरोजगारो की मात्रा में निश्चित ही कमी आ जायेगी। जाति  आरक्षण केवल शिक्षा या नोकरी के क्षेत्र को ही प्रभावित नही कर रहा है अपितु जनता के रहन सहन और आर्थिक व्यवस्था को भी प्रभावित कर रहा है। सरकार ने ग्रामीण पंचायती व्यवस्था में भी आरक्षण को कुछ इस तरह लागु किया है कि अब केवल एक वर्ग के लोग ही चुनाव में उम्मीदवार होते है और ऐसा  करने पर अगले पाँच वर्षो में केवल उसी वर्ग का उद्धार होता है बाकि के लोग अपनी शिकायते लेकर भटकने लगते है। जाति आरक्षण के कारण ग्रामीण विकास दर में वाकई कमी आई है।
कहने का तात्पर्य यह है की जाति आरक्षण से किसी एक क्षेत्र को ही नही अपितु विभिन्न क्षेत्रो पर हानिप्रद प्रभाव पड़ रहा है। भारत में बढ़ती बेरोजगारी का सबसे बड़ा कारण आरक्षण ही है। आज देश का पढ़ा लिखा युवा अपनी योग्यता की पोथी लेकर गली गली घूम रहा है इस आस में की कोई उसे उसकी योग्यता के अनुसार नोकरी दे।अब हालात कुछ ऐसे बने हुए है की पढ़े लिखे लोगो को अपनी योग्यता के अनुरूप काम नही मिल रहा है और कई लोग निर्धनता के कारण मजदूरी की दर पर कार्य करने के लिए मज़बूर है और इनके स्थान पर अयोग्यो का शासन निरंतर चलायमान है। अब आखिर में कहना तो बनता है की -
शिक्षा पैदा कर रही शिक्षित बेरोजगार, चपरासी पद के लिए भरी मारामार।
एक अनार सौ बीमार हुई पुरानी बात, अब तो एक नोकरी पर लाख लगाये घात।  
- शिवांगी पुरोहित

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