मेरी किताब: मेरा अनुभव

एक बहुत ही गंभीर विषय पर किताब लिखने का और उसे लोगो के सामने प्रस्तुत करने का ये मेरा पहला मौका था।कुछ महीनों तक न तो खाने का होश रहा न सोने का। ऐसा हो सकता है कि पाठक इस किताब के कुछ तथ्यों से सहमत न हों।लेकिन यह किताब किसी भी तरह से किसी व्यक्ति या समुदाय की जातीय या धार्मिक भावनाओ को आहत नही करेंगी। ये पढ़ने वाले की मानसिकता के स्तर पर निर्भर करता है कि वो इस किताब के मूल उद्देश्य को समझ पाता है या नही। इस किताब को हर वर्ग, समुदाय और धर्म का व्यक्ति पढ़ सकता है क्योकि ये किताब किसी भी समुदाय विशेष पर कटाक्ष नही करती है। किताब में मौजूद सभी तथ्य विभिन्न प्रकार के स्त्रोतो से प्राप्त किये गए है जिनके प्रमाण भी किताब में मौजूद है। यह किताब समाज में फैले जाति व्यवस्था और आरक्षण से संबंधित भ्रम को दूर करने के उद्देश्य से लिखी गई है। यह किताब पूरे 1 साल के शोध का निष्कर्ष है जो भारतीयों को अतीत और वर्तमान के कुछ तथ्यों को उजागर कर इस मृग मरीचिका से निकलने में सहायता प्रदान करेगा।
किताब लिखने के बाद मैंने महसूस किया कि कुछ लोगों को मुझसे बहुत परेशानी होने लगी है। चाहे वो कोई रिश्तेदार हो या कोई बाहरी व्यक्ति। किताब के विमोचन तक आते आते मैंने कई सारी मानसिक प्रताड़नाओं को झेला जो मुझे मेरे अपनों ने दी।यदि मेरे पिता मेरे साथ न होते तो शायद मैं इतना कुछ करने की हिम्मत नही कर पाती। कार्यक्रम के दो दिन पहले मैंने प्रेस कॉन्फ्रेंस रखी और उसमें मेरा प्रदर्शन काफी अच्छा रहा जिससे लोगों को चिढ़ने की एक और वजह मिल गयी। फिर क्या था उस कार्यक्रम की धच्चियां उड़ाने के लिए चारों तरफ से कोशिश की जाने लगी। जिन संगठनों का मैंने सहारा लिया था उन पर दबाब डाला जाने लगा की ये कार्यक्रम में कोई उपस्थित न रहे। कार्यक्रम के एक दिन पहले ही कुछ प्रतिनिधियों ने अपने कदम पीछे कर लिए और कुछ आरक्षण विरोधी बनने वालों ने राजनीती का मुखोटा पहन लिया। उस दिन मुझे ये समझ आया की सब लोग एक ही थाली के चट्टे बट्टे है। जितना आरक्षण के विरोध का नाटक करते है वो सिर्फ राजनैतिक रोटियां सेकने के लिए। इन सब चीजों का प्रभाव उस कार्यक्रम पर भी पड़ा। लेकिन ये लोग शायद छोटी राजनीती करना कभी छोड़ेंगे नही।इसीलिए मैंने सबको छोड़ दिया उनके कर्मों पर। मेरे साथ जितना बुरा करोगे तुम्हारे कर्म सूद समेत वापस देंगे। मेरी किताब तो सफल रही। क्योंकि मैं निराश नही हुई। अब बस इतना चाहती हूँ कि इस किताब के माध्यम से भारत के युवाओं को जागरूक कर सकूं और इस कीचड से बाहर निकाल सकूं।
- शिवांगी पुरोहित

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