न्यायधीशों के मतभेद से उठे सवाल

भारत की न्याय व्यवस्था का सबसे बड़ा स्तम्भ आज कटघरे में आकर खड़ा हो गया है।माना की एक घर में चार बर्तन खड़कते है लेकिन आज सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ जज ही खड़कने लगे है जिनके ऊपर भारत की न्याय व्यवस्था टिकी हुई है।इतिहास में पहली बार सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जज चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ जनता की अदालत में आ खड़े हुए है।जनता को न्याय दिलाने वाली भारत की सर्वोच्च संस्था आज जनता से न्याय मांग रही है।ये कहाँ तक उचित है की सुप्रीम कोर्ट के जज होकर जनता के सामने कोर्ट के आंतरिक विवादों को सामने लाया जा रहा है।जब जनता को न्याय दिलाने वाले ही आपस में लड़ने लगेंगे तो जनता उनसे क्या उम्मीद रखेगी।शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजो द्वारा मीडिया के साथ की गयी प्रेस कॉन्फ्रेंस इस बात के लिए रखी गयी की चीफ जस्टिस हमारी बात नही सुनते है और अपने पसंद की बेंच को मुक़दमे सौंप देते है।क्या इस बात को लेकर जनता के सामने फरियादी बनकर आना उचित था?? क्या जनता का विश्वास न्याय व्यवस्था को लेकर नही डगमगाएगा??जनता या सरकार इसमें क्या कर सकती है क्या जनता चीफ जस्टिस के पास चारों जजों की फ़रियाद लेकर जायेगी या सरकार महाभियोग द्वारा चीफ जस्टिस को हटाएगी वो भी केवल इस बुनियाद पर की उच्च न्यायधीश अपनी पसंद की बेंच को मुक़दमे सौंपते है। सुप्रीम कोर्ट में सालों से पदस्थ ये चारों वरिष्ठ जज जो अपने कार्यकाल में बड़े से बड़ा फैसला ले चुके है।जस्टिस जे चेलमेश्वर जिन्होंने अभिव्यक्ति के अधिकार को कायम रखने का फैसला सुनाया था,जस्टिस रंजन गोगोई ने सौम्य हत्याकांड पर ब्लॉग लिखने के आरोप में जस्टिस काटजू को निजी तौर पर पेश होने को कहा था,जस्टिस मदन बी लोकुर ने धर्म को चुनाव और राजनीति से दूर रखने को कहा था तथा जस्टिस कुरियन जोसेफ ने तीन तलाक को अवैध करार दिया था।इतने बड़े बड़े फैसले लेंने वाले वरिष्ठ जज आज इतने असहाय हो गए है कि उनका कहना है "लोकतंत्र दाव पर है इसे ठीक नही किया गया तो सब ख़त्म हो जायेगा,हम चीफ जस्टिस को समझाने में नाकाम रहे ।हम लोकतंत्र को बचाने के लिए आगे आये है।हम नहीं चाहते की 20 साल बाद कोई कहे कि हमने अपनी आत्मा बेच दी।"  यह बात पूरे भारत के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है कि सुप्रीम कोर्ट को कभी ऐसे दिन देखने पड़ेंगे।जब सुप्रीप कोर्ट के जजो में आपसी सहमति और अच्छे सम्बन्ध नही है तो यह भारत के लोकतंत्र के लिए घातक है।इस विषय को अब तक  राजनेताओ ने भी अपनी जुबान से खेलना शुरू कर दिया है।जहाँ देश का प्रत्येक व्यक्ति न्याय व्यवस्था से उम्मीद रखता है और जिसे हम न्याय का मंदिर मानते है उस मंदिर में ऐसा विवाद होना शर्म की बात है।जब चीफ जस्टिस के सामने कुछ वरिष्ठ जजो की नही चल रही है तो उन्होंने ऐसा कदम उठाया।सालो से सुप्रीम कोर्ट में कार्य कर रहे जजो को यह भान है कि कौन सा मुकदमा कौन से बेंच को जाना चाहिए लेकिन जब नए चीफ जस्टिस से शुरुआत से ही ताल मेल नही बैठ पाये तो जजो ने मिलकर उन्हें ख़त लिखा और सभी समस्याओ से अवगत कराया लेकिन चीफ जस्टिस को वे बातें इतनी गंभीर नही लगीं इसीलिए उन्होंने जजों की बाते नही मानी और समस्या इतनी बढ़ गयी कि मिडिया से कॉन्फ्रेंस कर जजो को यह बात जनता तक पहुचानी पड़ी।यदि बात इतनी बडी है तो सुप्रीम कोर्ट के बाकि 23 जजों ने कोई कदम नही उठाया यह बात विचारणीय है।भारत में न्याय व्यवस्था इतनी जटिल हो चुकी है कि एक मुकदमा सुलझने में सालों लग जाते है।भारत की अदालतों में 2.7 करोड मामले लंबित है और जजो की भारी कमी है।इन आंकड़ों से यह भी समझा जा सकता है न्याय कि तलाश में जितने भी लोग  न्यायालयों तक पहुँचते है, सालों- साल इन्तजार करना ही उनकी नियति बन जाती है।न्याय के लिए भीख मांगते लोग भटकते रह जाते है और यहाँ सुप्रीम कोर्ट के जज ही आपस में लड़ रहे है।जहां खुद सुप्रीम कोर्ट में 84000 केस लंबित है वहाँ जजो का आपसी विवाद लोकतंत्र का सर नीचा कर देता है।साथ ही साथ जज कहते है कि हमने अपनी बात देश के सामने रख दी है अब देश तय करेगा।जजो द्वारा स्पष्ट रूप से कहा गया है कि कोर्ट प्रशासन सही नही चल रहा है।तो इसमें जनता क्या कर सकती है? सरकार की तरफ से भी बयान आया है कि जजों को आपस में बातचीत कर समझोता कर लेना चाहिए।भारत की जनता आशा करती है कि चीफ जस्टिस और चारों जज भारत की गरिमा और लोकतंत्र को बचाने के लिए आपसी मतभेद भुला कर मिलकर कार्य करेंगे और अपना यह झगड़ा आपस में सुलझा लेंगे क्योंकि जजो की आपसी लड़ाई भारत की जनता पर और उनकी भावनाओ पर बुरा प्रभाव डालेगी और इससे जनता का विश्वास भी न्याय व्ययवस्था से डगमगा जायेगा।
- शिवांगी पुरोहित

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